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> इतिहास > स्वतंत्रता सेनानी > भारत का एक इंक़लाबी स्वतंत्रता सेनानी अली अशरफ़ उर्फ़ ज्ञान चंद

भारत का एक इंक़लाबी स्वतंत्रता सेनानी अली अशरफ़ उर्फ़ ज्ञान चंद

एо अहमद
एо अहमद
एо अहमद
लेखकएо अहमद
Founder and Editor
मैं आफताब अहमद इस साइट पर एक लेखक हूं, मुझे विभिन्न शैलियों और विषयों पर लिखना पसंद है। मुझे ऐसा निबंध और ब्लॉग लिखना अच्छा लगता...
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Published: 27/08/2024
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4 मिनट में पढ़ें

सन् 1918 में जब अली अशरफ़ ( Ali Asraf ) की पैदाइश हुई, उस वक़्त रूस में क्रांति हो चुकी थी, और उसका असर दुनिया में दिखने लगा था। ये वो दौर था जब नौजवान रूस की क्रांति से प्रभावित होकर कॉम्युनिस्ट विचारधारा के नज़दीक जा रहे थे। ऐसे में अली अशरफ़ पर भी इसका असर पड़ा। इसके बाद वो कॉमरेड अली अशरफ़ हो गए। अली अशरफ़ ने 1937 में बिहार स्टूडेंट फ़ेडरेशन की स्थापना में अहम रोल अदा किया और इसके पहले महासचिव बने।

जब सन् 1939 में भारतीय कॉम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक एमएन रॉय पटना आए हुए थे, तब अली अशरफ़ ने अपने साथियों के साथ मिल कर कॉम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद बिहार में डाली। उस समय कॉम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी थी।

इसी बीच दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। इंक़लाबी लोगों ने नारा लगाना शुरू कर दिया “न देंगे एक पाई, न देंगे एक भाई..!”

क्यूँकि वो एक ऐसी तंज़ीम के लीडर थे, जिसे अंग्रेज़ शक की नज़र से देखते थे, इसी लिए अली अशरफ़ को गिरफ्तार कर लिए गया और लम्बे समय तक जेल में क़ैद रहे। 

26 जनवरी 1940 को स्टूडेंट फ़ेडरेशन ने एक जुलूस पटना में निकला और अली अशरफ़ के घर के सामने से गुज़रते हुए उनके लिए अपनी एकजुटता का संदेश दिया। वहीं 1942 में जब स्टूडेंट फ़ेडरेशन का अधिवेशन हुआ। तब अधिवेशन वाली जगह का नाम अली अशरफ़ नगर उनके नाम पर एकजुटता दिखाने की ख़ातिर रखा गया।

इसी बीच 1942 में अंग्रेज़ों ने कॉम्युनिस्ट क़ैदियों को रिहा करने का एलान किया। अली अशरफ़ के भी रिहाई का हुक्म हुआ, पर बाक़ी सियासी क़ैदियों को ना रिहा करने पर उन्होंने विरोध करते हुए जेल से निकलने से इंकार कर दिया। जिसके बाद उन्हें जेल के दरवाज़े के बाहर लाकर पटक दिया गया। इस तरह 1942 में जेल से छूट कर बाहर आए।

Freedom-fighter-Ali-Ashraf
अपने परिवार के साथ अली अशरफ़

अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई, तो अली अशरफ़ ने भी उसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। अंग्रेज़ों ने फिर धड़ पकड़ शुरू किया। अली अशरफ़ को भी पुलिस ढूँढने लगी, पर वो भूमिगत हो गए। जनवरी 1943 में उनके भाई को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया और पटना स्थित उनके घर को पुलिस ने कुर्क कर लिया क्यूँकि उन्हें अली अशरफ़ का कोई सुराग़ नही मिल रहा था।

अली अशरफ़ मुंबई आ गए और यहाँ अपना नाम बदल कर ज्ञान चंद कर लिया। वे ख़ामोशी से कॉम्युनिस्ट पार्टी के मुंबई स्थित दफ़्तर में पार्टी ऑफ़िस से निकलने वाले अख़बार “क़ौमी जंग” के एडिटर का कार्यभार सम्भाला और अंग्रजों के खिलाफ लिखते रहे।

सन् 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो अली अशरफ़ बिहार वापस आए, उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की बिहार कमेटी द्वारा निकाला जाने वाला अख़बार “जनशक्ति” अली अशरफ़ की ज़िम्मेदारी में आया और सन् 1965 तक वो इसके इडिटर रहे। 

सन् 1965 में वो पटना छोड़ कर दिल्ली शिफ़्ट हो गए। यहां उन्होंने “सोवीयत रिव्यू” के संयुक्त एडिटर के रूप में काम किया। उन्होंने अपने जीवन में कई किताबें लिखीं। कई किताबों को ट्रांसलेट किया। इसी तरह लिखते पढ़ते, इंक़लाब बरपा करते हुए 84 साल की उमर में कॉमरेड अली अशरफ़ का इंतक़ाल 2002 में अलीगढ़ में हुआ।

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एо अहमद
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मैं आफताब अहमद इस साइट पर एक लेखक हूं, मुझे विभिन्न शैलियों और विषयों पर लिखना पसंद है। मुझे ऐसा निबंध और ब्लॉग लिखना अच्छा लगता है जो मेरे पाठकों को चिंतन और प्रेरणा देती हैं।
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