औरंगज़ेब, मुग़ल साम्राज्य के छठे बादशाह, एक ऐसी शख्सियत थे जिनका जीवन युद्ध, सत्ता और निजी त्रासदियों से भरा रहा। उनके शासन के आख़िरी 27 साल (1680-1707) विशेष रूप से उनके जीवन का सबसे जटिल और दुखद दौर था। इस दौरान उन्होंने दक्षिण भारत में अपनी सैन्य महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश की, लेकिन इस प्रक्रिया में न केवल साम्राज्य कमज़ोर हुआ, बल्कि उनकी निजी ज़िंदगी भी अकेलेपन और त्रासदी की चपेट में आ गई। यह लेख औरंगज़ेब के जीवन के इस महत्वपूर्ण दौर को विस्तार से समझाता है, जिसमें उनके दक्षिण अभियान, क़रीबियों की मौत, वारिस के संकट और साम्राज्य के पतन की शुरुआत शामिल है।
औरंगज़ेब का दक्षिण अभियान: दिल्ली का उजड़ना और साम्राज्य की यात्रा
साल 1680 में औरंगज़ेब ने पूरे लाव-लश्कर के साथ दक्षिण भारत की ओर कूच किया। उनके साथ विशाल सेना, हरम, और तीन बेटे थे, केवल एक बेटा दिल्ली में रह गया। इतिहासकार ऑड्री ट्रुश्के अपनी किताब औरंगज़ेब, द मैन एंड द मिथ में लिखती हैं कि औरंगज़ेब का कारवाँ एक भव्य दृश्य था। उनके साथ चलते हुए बाज़ार, अफ़सरों और नौकरों का हुजूम, और शाही तंबुओं का काफ़िला देखने लायक था। यह मुग़ल परंपरा का हिस्सा था कि राजधानी बादशाह के साथ चलती थी, लेकिन औरंगज़ेब का यह कूच सामान्य नहीं था।
दक्षिण जाने के बाद औरंगज़ेब कभी दिल्ली नहीं लौटे। उनके जाने से दिल्ली उजाड़ और वीरान हो गई। लाल क़िला, जो कभी मुग़ल शक्ति का प्रतीक था, धूल की परतों से ढक गया। यह वह दौर था जब औरंगज़ेब ने दक्षिण में मराठों, बीजापुर और गोलकुंडा जैसे क्षेत्रों को अपने अधीन करने की कोशिश की। लेकिन इस महत्वाकांक्षा ने उनके साम्राज्य को कमज़ोर करने की नींव रख दी।
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बुढ़ापे में अकेलापन: क़रीबियों की मौत और विश्वास का संकट
औरंगज़ेब के जीवन के आख़िरी तीन दशक दक्षिण भारत में बीते, जहाँ उन्होंने कई लड़ाइयों और घेराबंदियों का नेतृत्व किया। लेकिन यह दौर उनके लिए ख़ुशनुमा नहीं था। जदुनाथ सरकार अपनी किताब द शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ औरंगज़ेब में लिखते हैं कि औरंगज़ेब अपने बुढ़ापे में अकेलेपन के शिकार हो गए थे। उनके ज़्यादातर नज़दीकी साथी एक-एक करके इस दुनिया से चले गए। केवल उनके वज़ीर असद ख़ाँ ही उनके पुराने साथियों में बचे थे।
जब औरंगज़ेब अपने दरबार में नज़र दौड़ाते थे, तो उन्हें केवल डरपोक, जलनख़ोर और चापलूस युवा दरबारी दिखाई देते थे। उनके परिवार में भी त्रासदियाँ कम नहीं थीं। उनकी बहू जहानज़ेब बानो (1705), विद्रोही बेटे अकबर-II (1704), कवयित्री बेटी ज़ेब-उन-निसां (1702), बहन गौहर-आरा, बेटी मेहर-उन-निसां, दामाद इज़ीद बख़्श (1706), और पोते बुलंद अख़्तर की मौत ने उन्हें गहरे दुख में डुबो दिया। औरंगज़ेब ने अपनी बहन गौहर-आरा की मौत पर कहा, “शाहजहाँ के बच्चों में अब सिर्फ़ मैं और वो बचे थे।”
इन निजी नुकसानों ने औरंगज़ेब को मानसिक और भावनात्मक रूप से तोड़ दिया। उनकी मृत्यु से पहले उनके दो और पोतों की मौत हुई, लेकिन दरबारियों ने यह ख़बर उनसे छिपाई, यह डरते हुए कि इससे उन्हें गहरा सदमा लगेगा।
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वारिस का संकट: बेटों में कमी और पोतों पर भरोसा
औरंगज़ेब के तीन बेटे—मुअज़्ज़म (शाह आलम), आज़म शाह, और कामबख़्श—उनकी मृत्यु के समय जीवित थे। लेकिन इनमें से किसी में भी मुग़ल साम्राज्य को संभालने की क्षमता नहीं थी। औरंगज़ेब ने अपने बेटों की कमज़ोरियों को ख़ुद पहचाना था। एक पत्र में, जो रूकायते आलमगीरी में संकलित है, उन्होंने मुअज़्ज़म को कंदहार न जीत पाने के लिए आड़े हाथों लिया और लिखा, “एक नालायक बेटे से बेहतर एक बेटी होना।”
इतिहासकार मूनिस फ़ारूकी अपनी किताब द प्रिंसेज़ ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर में लिखते हैं कि औरंगज़ेब ने अपने शहज़ादों की निजी ज़िंदगी में अत्यधिक दख़ल देकर उनकी स्वायत्तता को कमज़ोर किया। 1700 के दशक तक औरंगज़ेब अपने बेटों की तुलना में अपने पोतों को ज़्यादा तरजीह देने लगे थे। इसका एक उदाहरण तब देखने को मिला जब उनके वज़ीर असद ख़ाँ और सैनिक कमांडर ज़ुल्फ़िकार ख़ाँ ने उनके सबसे छोटे बेटे कामबख़्श को मराठा राजा राजाराम से बिना अनुमति संपर्क करने के लिए गिरफ़्तार किया।
औरंगज़ेब का अपने बेटों पर अविश्वास और उनकी स्वायत्तता को दबाने की नीति ने उत्तराधिकार के संकट को और गहरा दिया। उन्होंने अपने बेटों को इस डर से दूर-दूर भेज दिया कि कहीं वे उनके ख़िलाफ़ विद्रोह न कर दें, जैसा कि औरंगज़ेब ने अपने पिता शाहजहाँ के साथ किया था।
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दक्षिण में सूखा और प्लेग: साम्राज्य की तबाही
औरंगज़ेब के दक्षिण अभियान के दौरान प्राकृतिक आपदाएँ भी उनकी मुसीबतों का कारण बनीं। इटालियन यात्री निकोलाव मनुची ने अपनी किताब स्टोरिया दो मोगोर में लिखा कि 1702 से 1704 के बीच दक्षिण भारत में भयंकर सूखा पड़ा। बारिश न होने और प्लेग की महामारी ने करीब 20 लाख लोगों की जान ले ली। भुखमरी इतनी बढ़ गई थी कि लोग अपने बच्चों को एक चौथाई रुपये में बेचने को मजबूर थे, लेकिन ख़रीदार भी नहीं मिलते थे।
मनुची के अनुसार, मृतकों को मवेशियों की तरह गड्ढों में दफ़नाया जाता था। दुर्गंध और मक्खियों ने हालात को और बदतर बना दिया। खेत बंजर हो गए, और आबादी इतनी कम हो गई कि कई दिनों के सफ़र में कहीं रोशनी या आग की चमक तक नहीं दिखती थी। इन आपदाओं ने औरंगज़ेब के सैन्य अभियानों को और मुश्किल बना दिया, और उनकी सेना का मनोबल भी टूटने लगा।
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उदयपुरी: औरंगज़ेब की अंतिम साथी
अपने आख़िरी दिनों में औरंगज़ेब को उनकी सबसे छोटे बेटे कामबख़्श की माँ उदयपुरी का साथ बहुत प्रिय था। अपनी मृत्युशैया से कामबख़्श को लिखे एक पत्र में औरंगज़ेब ने कहा कि उदयपुरी ने उनकी बीमारी में उनका साथ नहीं छोड़ा और मृत्यु में भी उनके साथ रहेंगी। औरंगज़ेब की मृत्यु के कुछ महीनों बाद उदयपुरी भी चल बसीं।
उदयपुरी का साथ औरंगज़ेब के लिए एक भावनात्मक सहारा था, जब उनके परिवार और दरबार में विश्वासघात और अकेलापन हावी था।
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उत्तर में विद्रोह और साम्राज्य का कमज़ोर होना
औरंगज़ेब की लंबी अनुपस्थिति ने उत्तर भारत में अव्यवस्था फैला दी। स्टेनली लेन-पूल अपनी किताब औरंगज़ेब एंड द डिके ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर में लिखते हैं कि राजपूत, जाट, और सिखों ने मुग़ल सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह शुरू कर दिया। मराठों ने भी छापामार युद्ध की रणनीति अपनाकर मुग़ल सेना को कमज़ोर किया।
औरंगज़ेब का साम्राज्य इतना विस्तृत हो गया था कि उसे संभालना असंभव हो गया। इतिहासकार अब्राहम इराली ने अपनी किताब द मुग़ल थ्रोन में लिखा कि औरंगज़ेब के क्षेत्रीय विस्तार ने साम्राज्य को मज़बूत करने के बजाय कमज़ोर किया। औरंगज़ेब ने ख़ुद कहा था, “अज़मा-स्त हमाह फ़साद-ए-बाक़ी” (मेरे बाद अराजकता)।
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औरंगज़ेब की बीमारी और अंतिम दिन
1705 में मराठा क़िले वागिनजेरा पर जीत के बाद औरंगज़ेब ने कृष्णा नदी के पास शिविर लगाया। यहीं उनकी तबीयत बिगड़ गई। अक्तूबर 1705 में वे अहमदनगर की ओर बढ़े, जो उनका आख़िरी पड़ाव बना। 14 जनवरी, 1707 को 89 वर्ष की आयु में वे फिर बीमार पड़े। कुछ समय बाद उनकी तबीयत सुधरी, लेकिन उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि उनका अंत निकट है।
अपने आख़िरी दिनों में औरंगज़ेब ने अपने बेटों आज़म और मुअज़्ज़म को पत्र लिखे, जिसमें उन्होंने सत्ता के लिए ख़ून-ख़राबे की आशंका जताई और अपने उत्तराधिकारियों से प्रजा की भलाई के लिए काम करने की अपील की। जदुनाथ सरकार के अनुसार, 3 मार्च, 1707 को औरंगज़ेब ने सुबह की नमाज़ पढ़ी और तसबीह के दाने गिनते हुए बेहोश हो गए। उनकी साँसें उखड़ने लगीं, लेकिन उनकी उंगलियों से तसबीह नहीं छूटी। उसी दिन जुमे को उनकी मृत्यु हो गई।
औरंगज़ेब की वसीयत थी कि उनके शव को बिना ताबूत के नज़दीकी जगह पर दफ़नाया जाए। उनकी मृत्यु के दो दिन बाद उनका बेटा आज़म अहमदनगर पहुंचा और उनके शव को दौलताबाद के पास ख़ुल्दाबाद में सूफ़ी संत शेख़ ज़ैन-उद-दीन की क़ब्र के बगल में दफ़नाया गया।
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उत्तराधिकार की जंग और मुग़ल साम्राज्य का पतन
औरंगज़ेब ने अपने बेटे मुअज़्ज़म (शाह आलम) को उत्तराधिकारी बनाया था, जो उस समय पंजाब का गवर्नर था। लेकिन उनकी मृत्यु के तुरंत बाद आज़म शाह ने ख़ुद को बादशाह घोषित कर दिया और आगरा की ओर कूच किया। उधर, शाह आलम भी आगरा पहुंच गए, जहाँ उनका ज़ोरदार स्वागत हुआ। जाजऊ में दोनों भाइयों की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, जिसमें शाह आलम की जीत हुई। 20 जून, 1707 को उन्होंने गद्दी संभाली।
आज़म शाह ने हार के बाद आत्महत्या कर ली। लेकिन शाह आलम की मृत्यु भी 1712 में हो गई। 1712 से 1719 के बीच सात सालों में चार मुग़ल बादशाह गद्दी पर बैठे, जो मुग़ल साम्राज्य के कमज़ोर होने का स्पष्ट संकेत था। जदुनाथ सरकार के अनुसार, औरंगज़ेब की नीतियों ने साम्राज्य के पतन की नींव रखी। 1857 में बहादुर शाह ज़फ़र के साथ मुग़ल साम्राज्य का अंत हो गया।
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औरंगज़ेब की विरासत
औरंगज़ेब एक जटिल शख्सियत थे। उनकी सैन्य महत्वाकांक्षाओं, धार्मिक नीतियों और निजी ज़िंदगी ने उन्हें एक विवादास्पद बादशाह बनाया। उनकी ग़ज़ब की याददाश्त, जिसमें वे किसी का चेहरा या शब्द कभी नहीं भूलते थे, और उनकी धार्मिकता, जिसमें उन्होंने अंतिम समय तक नमाज़ और तसबीह नहीं छोड़ी, उनकी शख्सियत के दो पहलू थे। लेकिन उनकी नीतियों ने मुग़ल साम्राज्य को कमज़ोर किया, और उनके उत्तराधिकारियों में सत्ता संभालने की क्षमता का अभाव रहा।
औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य धीरे-धीरे अपने पुराने रुतबे को खोता गया। उनकी कहानी न केवल एक बादशाह की है, बल्कि एक ऐसे इंसान की है जो सत्ता, परिवार और अकेलेपन के बीच जूझता रहा।
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संदर्भ:
- ऑड्री ट्रुश्के, औरंगज़ेब, द मैन एंड द मिथ
- जदुनाथ सरकार, द शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ औरंगज़ेब
- मूनिस फ़ारूकी, द प्रिंसेज़ ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर
- निकोलाव मनुची, स्टोरिया दो मोगोर
- स्टेनली लेन-पूल, औरंगज़ेब एंड द डिके ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर
- अब्राहम इराली, द मुग़ल थ्रोन