लीबिया के रेगिस्तानी मैदानों में, जहां धूल भरी हवाएं और सूरज की तपिश जीवन को चुनौती देती थी, एक शख्स ने अपनी हिम्मत, हौसले और आजादी की जिद से इतिहास रचा। यह कहानी है ओमर मुख्तार की, जिन्हें दुनिया “लायन ऑफ द डेजर्ट” के नाम से जानती है। यह कहानी न केवल उनके साहस और बलिदान की गाथा है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि कैसे एक साधारण इंसान अपने दृढ़ संकल्प से साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती दे सकता है। यह कहानी युवा पाठकों के लिए प्रेरणा है कि सच्चाई और न्याय के लिए लड़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती।
कहानी की शुरुआत: एक साधारण जीवन से असाधारण संघर्ष
1858 में, लीबिया के त्रिपोली (तब ख़िलाफ़ते उस्मानिया का हिस्सा) के एक छोटे से गांव जनजूर में, ओमर मुख्तार का जन्म हुआ। उनके पिता, मुख्तार बिन उमर, एक सम्मानित कबीले के सदस्य थे। लेकिन ओमर छोटे थे जब उनके पिता का निधन हज के दौरान हो गया। इसके बाद, उनकी परवरिश एक धार्मिक माहौल में हुई। उनके परिवार के मित्र और संरक्षक, हुसैन गोजी, ने उन्हें शिक्षा और नैतिकता का पाठ पढ़ाया। ओमर ने कुरान की तालीम ली और अल-सेनुसी आंदोलन से जुड़े, जो एक धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन था। इस आंदोलन ने उन्हें नेतृत्व और अनुशासन का पाठ पढ़ाया।
1911 में, जब इटली ने ऑटोमन साम्राज्य से लीबिया पर कब्जा कर लिया, ओमर की जिंदगी बदल गई। इटली ने लीबिया को अपनी उपनिवेश घोषित कर दिया, और इसके साथ ही शुरू हुआ एक क्रूर शासन, जिसने लीबिया की जनता को गुलामी की जंजीरों में जकड़ने की कोशिश की। लेकिन ओमर ने हार नहीं मानी। वे रेगिस्तान के भूगोल को अपनी ताकत बनाकर इटालियन सेना के खिलाफ छापामार युद्ध शुरू करने में जुट गए।
रेगिस्तान का शेर: छापामार युद्ध की कला
ओमर मुख्तार कोई सैन्य प्रशिक्षित कमांडर नहीं थे, लेकिन उनकी बुद्धिमत्ता, रणनीति और रेगिस्तान की गहरी समझ ने उन्हें एक महान योद्धा बनाया। वे लीबिया के पहाड़ों, घाटियों, और रेगिस्तानी रास्तों को उतना ही जानते थे, जितना एक किताबी विद्वान अपनी किताब को। उनकी सेना में पुरानी बंदूकें और तेज अरबी घोड़े थे, लेकिन उनका हौसला आधुनिक हथियारों से लैस इटालियन सेना को भी मात देता था।

ओमर की रणनीति थी “हिट एंड रन”। वे दुश्मन पर अचानक हमला करते, उसे नुकसान पहुंचाते और फिर रेगिस्तान की गहराइयों में गायब हो जाते। इटालियन सैनिक उन्हें “भूत” या “रेगिस्तान का शेर” कहने लगे। उनकी इस रणनीति ने इटालियन सेना को 20 साल तक परेशान रखा। इस दौरान, ओमर ने न केवल सैन्य संघर्ष किया, बल्कि लीबिया की जनता को एकजुट करने का काम भी किया।
इटली का क्रूर शासन और ग्रजियानी का आतंक
1922 में, इटली में बेनिटो मुसोलिनी की फासीवादी सरकार सत्ता में आई। मुसोलिनी का सपना था प्राचीन रोमन साम्राज्य की तरह विश्व विजेता बनना। उसने लीबिया को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेने की ठानी। इसके लिए उसने अपने सबसे क्रूर जनरल, रोडोल्फो ग्रजियानी, को लीबिया का गवर्नर नियुक्त किया। ग्रजियानी ने लीबिया की जनता पर कहर बरपाया। उसने रेगिस्तान में कांटेदार तारों की बाड़ बनवाई, खेतों को जला दिया, कुओं में जहर डाल दिया और हजारों लोगों को कॉन्सन्ट्रेशन कैंपों में कैद कर लिया।
इटालियन सेना ने पहली बार युद्धक विमानों और टैंकों का इस्तेमाल सिविलियन आबादी के खिलाफ किया। यह एक ऐसा युद्ध था, जहां एक तरफ आधुनिक हथियार थे, तो दूसरी तरफ ओमर की छोटी सी सेना और उनकी अटूट इच्छाशक्ति। ग्रजियानी ने ओमर को पकड़ने के लिए जासूसों का जाल बिछाया और शांति वार्ता का ढोंग रचा। लेकिन ओमर ने हर बार साफ कहा, “हम अपनी जमीन और आजादी के लिए लड़ेंगे।”
अंतिम युद्ध और बलिदान
1931 तक, ओमर की सेना कमजोर पड़ने लगी थी। ग्रजियानी की क्रूर रणनीतियों ने उनके समर्थकों को कम कर दिया था। जासूसों की मदद से इटालियन सेना ने ओमर को पहाड़ियों में घेर लिया। एक भयंकर युद्ध के बाद, ओमर को बंदी बना लिया गया। उन्हें ग्रजियानी के सामने पेश किया गया, जहां उन्हें 50,000 लीरा की पेंशन और सेफ पैसेज का लालच दिया गया, बशर्ते वे अपने साथियों के नाम बताएं और इटली के शासन को स्वीकार करें।

लेकिन ओमर ने लालच को ठुकरा दिया। उन्होंने कहा, “मेरी जिंदगी मेरे जल्लाद से लंबी होगी।” 16 सितंबर, 1931 को, सोलुच के कॉन्सन्ट्रेशन कैंप में, हजारों लीबियाई कैदियों के सामने, 73 वर्षीय ओमर मुख्तार को फांसी दे दी गई। अंतिम क्षणों में, उन्होंने शांति से कुरान पढ़ी और चश्मा पहनकर तख्ते की ओर बढ़े। उनकी मृत्यु ने लीबिया की जनता में आजादी की आग को और भड़का दिया।
गांधी और ओमर: एक तुलना
ओमर मुख्तार की कहानी को समझते समय, उनकी तुलना महात्मा गांधी से करना स्वाभाविक है। दोनों ही अपने-अपने देशों में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़े। जहां गांधी ने अहिंसा और सविनय अवज्ञा का रास्ता चुना, वहीं ओमर ने सशस्त्र संघर्ष को अपनाया। लेकिन दोनों का लक्ष्य एक था—अपनी मातृभूमि को विदेशी शासन से मुक्त करना। दोनों को ही मृत्यु का भय नहीं था, और दोनों ने अपने सिद्धांतों के लिए अपने जीवन को दांव पर लगा दिया।
जैसा कि लायन ऑफ द डेजर्ट फिल्म के अंतिम दृश्य में दिखाया गया, ओमर का चश्मा, जो तख्ते पर गिरता है, गांधी के गोल चश्मे की याद दिलाता है। यह एक प्रतीक है कि सच्चाई और संघर्ष का रास्ता, चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक, हमेशा इतिहास में अमर रहता है।
ओमर मुख्तार की कहानी हमें सिखाती है कि सच्चाई और न्याय के लिए लड़ने वाला व्यक्ति कभी हार नहीं मानता। चाहे वह रेगिस्तान का शेर हो या अहिंसा का पुजारी, दोनों ने अपने-अपने तरीके से इतिहास रचा। आज के युवाओं के लिए ओमर की कहानी यह संदेश देती है कि चुनौतियों के सामने हिम्मत और विश्वास ही सबसे बड़ी ताकत है। उनकी फांसी का तख्ता भले ही उनकी जिंदगी का अंत था, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है।
खिराज-ए-अकीदत: ओमर मुख्तार और महात्मा गांधी को। 💐