4 मई, 1799 को टीपू सुल्तान, मैसूर के शासक, श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में शहीद हुए। उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करने के बजाय स्वतंत्रता और सम्मान के लिए लड़ाई लड़ी। उनकी प्रसिद्ध कहावत, “शेर की एक दिन की जिंदगी गीदड़ की सौ साल की जिंदगी से बेहतर है,” उनकी वीरता और देशभक्ति को दर्शाती है। ऐतिहासिक दस्तावेज, जैसे The Cambridge History of India (1929), इस बात की पुष्टि करते हैं कि टीपू ने अंत तक अंग्रेजों के साथ समझौता करने से इनकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप चौथे अंग्रेज-मैसूर युद्ध में उनकी शहादत हुई। उनकी मृत्यु ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रेरणादायक अध्याय जोड़ा।
नासा में टीपू सुल्तान की पेंटिंग
क्या आप जानते हैं कि नासा के वॉलॉप्स फ्लाइट फैसिलिटी (वर्जीनिया, अमेरिका) में टीपू सुल्तान की सेना को रॉकेट दागते हुए दिखाने वाली एक पेंटिंग मौजूद है? भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथा Wings of Fire में लिखा:
जब मैं नासा के वॉलॉप्स फ्लाइट फैसिलिटी गया, तो रिसेप्शन लॉबी में एक पेंटिंग देखकर हैरान रह गया। उसमें दक्षिण एशियाई सैनिक ब्रिटिश सेना पर रॉकेट दाग रहे थे। यह टीपू सुल्तान की सेना थी। यह देखकर मुझे गर्व हुआ कि एक भारतीय को नासा में सम्मानित किया जा रहा है।
हालांकि, इस पेंटिंग की मौजूदगी की आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन यह दावा टीपू की रॉकेट तकनीक के वैश्विक महत्व को दर्शाता है। नासा के कुछ शैक्षिक संसाधनों (NASA Education Resources, Rockets Guide) में मैसूरियन रॉकेट को आधुनिक रॉकेट्री के प्रारंभिक प्रेरणा स्रोत के रूप में मान्यता दी गई है, जो टीपू सुल्तान के योगदान को रेखांकित करता है। यह स्पष्ट करता है कि उनकी तकनीक ने रॉकेट्री के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जब टीपू सुल्तान ने किया राकेटों का प्रयोग
18वीं सदी में टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली ने अंग्रेजों के खिलाफ चार अंग्रेज-मैसूर युद्ध (1767-1799) लड़े। इन युद्धों में मैसूरियन रॉकेट का उपयोग एक अभूतपूर्व सैन्य नवाचार था। 1780 के पोलिलुर युद्ध में इन रॉकेटों ने अंग्रेजी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया, जैसा कि The History of the Reign of Tipu Sultan (1873) में वर्णित है। ये रॉकेट बांस के बजाय स्टील के बने थे, जिनमें बारूद भरा जाता था, और इन्हें 1-2 किलोमीटर की दूरी तक प्रक्षेपित किया जा सकता था। टीपू ने अंग्रेजों के साथ समझौता करने से इनकार कर दिया, जिसके कारण वे उनके कट्टर शत्रु बन गए। मैसूरियन रॉकेट की प्रभावशीलता ने अंग्रेजी सेना को स्तब्ध कर दिया, और इसकी चर्चा ब्रिटिश सैन्य दस्तावेजों (British East India Company Records) में मिलती है।
टीपू सुल्तान और हैदर अली ने कैसे बनाया रॉकेट
हैदर अली, एक सिपाही के पुत्र, ने सिग्नलिंग के लिए उपयोग होने वाले छोटे रॉकेटों को सैन्य हथियार में बदलने का विचार विकसित किया। उनके पिता, जो मैसूर सेना में सिग्नलिंग डिवीजन के प्रमुख थे, ने उन्हें इस तकनीक से परिचित कराया। हैदर अली ने बांस के रॉकेटों को स्टील सिलेंडरों से बदलकर और बारूद की मात्रा बढ़ाकर उन्हें अधिक घातक बनाया। टीपू सुल्तान ने इस डिज़ाइन को और उन्नत किया, रॉकेट के सिरे पर 4 फुट लंबी तलवार जोड़कर, जिससे इसकी मारक क्षमता बढ़ गई। Science and Technology in Colonial India (2006) के अनुसार, मैसूर में एक समर्पित रॉकेट कोर था, जिसमें 1,200 से अधिक सैनिक रॉकेट संचालन में प्रशिक्षित थे। इस नवाचार ने मैसूर को तकनीकी रूप से उन्नत सैन्य शक्ति बनाया।
कैसे काम करता था ये रॉकेट
मैसूरियन रॉकेट न्यूटन के तीसरे नियम (क्रिया-प्रतिक्रिया) पर आधारित था। बारूद के दहन से उत्पन्न गैस रॉकेट को विपरीत दिशा में प्रक्षेपित करती थी, जिससे यह लगभग 1-2 किलोमीटर की दूरी तय करता था। रॉकेट के सिरे पर लगी तलवार, जो रॉकेट से भारी होती थी, ईंधन खत्म होने पर हवा में चक्कर खाते हुए दुश्मन सेना पर गिरती थी, जिससे भारी नुकसान होता था। The Rocket: A Cultural History (2010) में वर्णित है कि इन रॉकेटों की अस्थिर उड़ान ने ब्रिटिश सैनिकों में भय पैदा किया, क्योंकि उनकी गति और दिशा अप्रत्याशित थी। यह तकनीक उस समय की तोपों और बंदूकों से भिन्न थी, क्योंकि यह हल्की और तेज थी।
टीपू सुल्तान और हैदर अली ने जीता 3 युद्ध लेकिन धोखे के शिकार हुए
हैदर अली और टीपू सुल्तान ने पहले तीन अंग्रेज-मैसूर युद्धों (1767-1769, 1780-1784, 1790-1792) में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की, विशेष रूप से मैसूरियन रॉकेट की मदद से। 1780 के पोलिलुर युद्ध में टीपू ने अंग्रेजों को करारी शिकस्त दी, जैसा कि The History of British India (1817) में दर्ज है। हालांकि, चौथे युद्ध (1799) में अंग्रेजों ने निज़ाम, मराठों और टीपू के गद्दार सेनापति मीर सादिक के साथ गठजोड़ कर श्रीरंगपट्टनम पर हमला किया। The Fall of Seringapatam (1799) के ब्रिटिश रिकॉर्ड्स के अनुसार, इस युद्ध में 50,000 सैनिकों की संयुक्त सेना ने टीपू की छोटी सेना को घेर लिया। टीपू ने अंत तक लड़ाई लड़ी और शहीद हो गए, लेकिन उनकी वीरता ने उन्हें अमर कर दिया।
जब टीपू की रॉकेट पहुंची ब्रिटेन
चौथे अंग्रेज-मैसूर युद्ध के बाद, अंग्रेजों ने मैसूरियन रॉकेटों को जब्त किया और उनकी तकनीक का अध्ययन किया। ब्रिटिश सैन्य इंजीनियर विलियम कांगरेव ने इन रॉकेटों से प्रेरणा लेकर कांगरेव रॉकेट विकसित किए, जिनका उपयोग नेपोलियन युद्धों (1805-1815) में किया गया, विशेष रूप से 1807 में कोपेनहेगन की घेराबंदी और 1814 में फोर्ट मैकहेनरी पर हमले में। Congreve Rocket System (1827) के दस्तावेजों में मैसूरियन रॉकेट को प्रेरणा स्रोत के रूप में उल्लेखित किया गया है। इस तरह, टीपू की तकनीक ने वैश्विक सैन्य रॉकेट्री को प्रभावित किया।
आज दुनिया में बड़ी बड़ी रॉकेटों को बनाने की होड़ मची है
मैसूरियन रॉकेट ने सैन्य और वैज्ञानिक रॉकेट्री के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि आधुनिक रॉकेट्री का विकास चीनी फायर एरो, यूरोपीय नवाचारों और 20वीं सदी के वैज्ञानिकों (जैसे रॉबर्ट गोडार्ड) के योगदान का परिणाम है, मैसूरियन रॉकेट को इसका प्रारंभिक प्रेरणा स्रोत माना जाता है। A History of Rocketry (1966) के अनुसार, मैसूरियन रॉकेट ने हथियार के रूप में रॉकेट की अवधारणा को स्थापित किया। आज, रॉकेट टेक्नोलॉजी का उपयोग अंतरिक्ष अन्वेषण, उपग्रह प्रक्षेपण और वैज्ञानिक अनुसंधान में किया जाता है। टीपू सुल्तान और हैदर अली का योगदान आधुनिक रॉकेट्री के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
टीपू सुल्तान और हैदर अली ने न केवल अंग्रेजों को चुनौती दी, बल्कि एक ऐसी तकनीक दी, जिसने दुनिया को बदल दिया। उनकी रॉकेट तकनीक ने युद्ध से लेकर अंतरिक्ष तक की यात्रा को प्रभावित किया। आज, जब हम उनकी शहादत को याद करते हैं, तो हमें उनके योगदान पर गर्व होता है।
अगर टीपू सुल्तान की वीरता और उनके रॉकेट्स की कहानी आपको प्रेरित करती है, तो इस लेख को अपने दोस्तों और परिवार के साथ शेयर करें। आइए, इस गौरवशाली इतिहास को जीवित रखें!