वाजिद अली शाह (1822-1887) अवध के अंतिम नवाब थे, जिनका शासनकाल (1847-1856) भारतीय इतिहास में एक विवादास्पद और बहुचर्चित विषय रहा है। कुछ इतिहासकार और समकालीन लेखक उन्हें एक कला-प्रेमी, संवेदनशील और जनता के बीच लोकप्रिय शासक मानते हैं, जबकि ब्रिटिश औपनिवेशिक लेखन और कुछ आधुनिक विश्लेषक उन्हें अयोग्य, विलासिता में डूबा हुआ और प्रशासनिक रूप से कमजोर शासक कहते हैं। यह लेख वाजिद अली शाह के शासन, उनके व्यक्तित्व, और उनके प्रति विभिन्न दृष्टिकोणों का विश्लेषण करेगा, ताकि यह समझा जा सके कि वे वास्तव में जनता के प्यारे नवाब थे या एक अयोग्य शासक।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वाजिद अली शाह 1847 में अपने पिता अमजद अली शाह की मृत्यु के बाद अवध के नवाब बने। उस समय अवध एक समृद्ध और सांस्कृतिक रूप से जीवंत रियासत थी, लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण थे। ब्रिटिश सरकार ने अवध को अपने अधीन करने की रणनीति के तहत नवाबों पर दबाव डाला और उनकी स्वायत्तता को धीरे-धीरे कम किया। 1856 में, ब्रिटिश गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने “कुप्रशासन” का हवाला देकर अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया, जिसके परिणामस्वरूप वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर दिया गया और उन्हें कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में निर्वासित कर दिया गया।
वाजिद अली शाह का व्यक्तित्व और कला के प्रति प्रेम
वाजिद अली शाह को उनकी कला के प्रति गहरी रुचि और संवेदनशील स्वभाव के लिए जाना जाता है। वे एक कवि, नाटककार, संगीतकार और नर्तक थे। उन्होंने उर्दू और अवधी में कविताएँ लिखीं, जिनमें “अख्तर” उनका तखल्लुस था। उनकी रचनाओं में प्रेम, दर्शन और सूफी विचारधारा की झलक मिलती है। उन्होंने कथक नृत्य को संरक्षण दिया और इसे एक परिष्कृत रूप प्रदान किया। उनके दरबार में ठुमरी, दादरा और खयाल जैसी संगीत शैलियों का विकास हुआ। वाजिद अली शाह ने स्वयं “राही मासूम रजा” जैसे नाटकों की रचना की और अपने दरबार में नृत्य-नाटिकाओं का आयोजन किया।
उनके इस कला-प्रेम ने अवध की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया। लखनऊ, जो पहले से ही गंगा-जमुनी तहजीब का केंद्र था, उनके शासनकाल में और भी चमका। उनके दरबार में हिंदू-मुस्लिम एकता का अनूठा उदाहरण देखने को मिलता था, जहाँ विभिन्न समुदायों के कलाकार और विद्वान एक साथ काम करते थे। वाजिद अली शाह ने होली और दीवाली जैसे हिंदू त्योहारों को उत्साह के साथ मनाया, जिससे जनता के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ी।
जनता के बीच लोकप्रियता के कारण
वाजिद अली शाह को अवध की जनता का प्यारा नवाब माने जाने के कई कारण थे। सबसे पहला, उन्होंने अपने शासनकाल में जनता के साथ सीधा संवाद रखा। वे अक्सर आम लोगों के बीच जाते थे, उनकी समस्याएँ सुनते थे और उन्हें न्याय प्रदान करने का प्रयास करते थे। उनकी सादगी और संवेदनशील स्वभाव ने लोगों का दिल जीता। उनके द्वारा आयोजित रंगारंग उत्सवों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जनता को भी शामिल किया जाता था, जिससे सामाजिक एकता को बल मिला।
दूसरा, वाजिद अली शाह ने अवध की अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने के लिए कुछ कदम उठाए। उन्होंने कृषि और व्यापार को बढ़ावा देने की कोशिश की, हालांकि उनकी नीतियों को ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका। इसके अलावा, उनके दरबार में कई लोगों को रोज़गार मिला, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को समर्थन मिला।
तीसरा, 1856 में जब ब्रिटिश ने अवध का विलय कर लिया, तो जनता और तालुकेदारों में भारी असंतोष फैला। यह असंतोष 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देखा गया, जिसमें अवध के लोग, विशेष रूप से किसान और सिपाही, ब्रिटिशों के खिलाफ लड़े। यह इस बात का प्रमाण है कि वाजिद अली शाह के प्रति जनता में गहरी निष्ठा थी।
अयोग्य शासक का आरोप
ब्रिटिश इतिहासकारों और कुछ आधुनिक विश्लेषकों ने वाजिद अली शाह पर अयोग्य शासक होने का आरोप लगाया। उनके खिलाफ मुख्य आरोप निम्नलिखित हैं:
- प्रशासनिक कमजोरी: ब्रिटिश दस्तावेज़ों, जैसे डलहौज़ी के पत्रों और “रेज़िडेंट” की रिपोर्ट्स, में वाजिद अली शाह के शासन को अराजक और भ्रष्ट बताया गया है। कहा जाता है कि उन्होंने प्रशासन को अपने चापलूसों और नौकरों के हवाले कर दिया, जो भ्रष्टाचार में लिप्त थे। हालांकि, यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि ब्रिटिश रेज़िडेंट्स अक्सर नवाबों के प्रशासन में हस्तक्षेप करते थे और उनकी कमज़ोरियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे, ताकि विलय का औचित्य साबित हो।
- विलासिता में डूबे रहना: वाजिद अली शाह पर आरोप है कि वे अपने निजी सुख-सुविधाओं और कला के प्रति अत्यधिक ध्यान देते थे, जिसके कारण शासन की उपेक्षा हुई। उनके हरम और नाच-गाने के आयोजनों को ब्रिटिश प्रचार ने “अनैतिक” और “विलासिता” के प्रतीक के रूप में चित्रित किया। हालांकि, यह उस समय के शासकों के बीच आम प्रथा थी, और वाजिद के कला-प्रेम को केवल विलासिता कहना उनके योगदान को कम आंकना है।
- ब्रिटिश के साथ संबंध: वाजिद अली शाह पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने ब्रिटिश के साथ सही तरीके से बातचीत करने में असफलता दिखाई। वे ब्रिटिश की मांगों के सामने झुकते रहे, जैसे कि सैन्य बलों को कम करना और उनके हस्तक्षेप को स्वीकार करना। लेकिन यह भी सच है कि उस समय अधिकांश भारतीय रियासतें ब्रिटिश की सैन्य शक्ति के सामने असमर्थ थीं।
विश्लेषण: प्यारे नवाब या अयोग्य शासक?
वाजिद अली शाह के शासन और व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने के लिए हमें उस समय के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ को समझना होगा। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दबाव में कोई भी नवाब पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं था। अवध पर ब्रिटिश की नज़रें पहले से थीं, और डलहौज़ी की “डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स” और “कुप्रशासन” की नीति ने विलय को अपरिहार्य बना दिया। इस संदर्भ में, वाजिद अली शाह की कथित कमज़ोरियों को पूरी तरह से उनके व्यक्तिगत दोष के रूप में देखना उचित नहीं है।
उनके कला-प्रेम और सांस्कृतिक योगदान को नकारा नहीं जा सकता। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहज़ीब, कथक नृत्य, और उर्दू साहित्य में उनका योगदान आज भी जीवित है। उनकी कविताएँ और नाटक उनकी संवेदनशीलता और बौद्धिकता को दर्शाते हैं। इसके साथ ही, 1857 के विद्रोह में अवध की जनता का ब्रिटिश के खिलाफ उठ खड़ा होना इस बात का सबूत है कि वाजिद अली शाह के प्रति जनता में गहरी निष्ठा थी।
हालाँकि, यह भी सच है कि उनके प्रशासन में कुछ कमियाँ थीं। ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण प्रशासनिक सुधार लागू करना उनके लिए कठिन था, लेकिन उन्होंने इस दिश में कोशिशें कीं। उनकी कथित “विलासिता” को उस समय के शासकों के दृष्टिकोण के संदर्भ में देखना चाहिए, न कि केवल ब्रिटिश प्रचार के आधार पर।
निष्कर्ष
वाजिद अली शाह न तो पूर्ण रूप से एक “प्यारे नवाब” थे, न ही पूरी तरह से “अयोग्य शासक”। वे एक ऐसे शासक थे जो अपनी कला और जनता से प्रेम करते थे, लेकिन औपनिवेशिक दबावों और राजनीतिक मजबूरियों के कारण अपने शासन को पूरी तरह प्रभावी नहीं बना सके। उनकी लोकप्रियता का सबूत उनकी जनता का स्नेह और 1857 का विद्रोह है, जबकि उनकी कमज़ोरियों का ज़िक्र ब्रिटिश दस्तावेज़ों में मिलता है, जो पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं।
वाजिद अली शाह का जीवन और शासन हमें यह सिखाता है कि इतिहास को केवल एक दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। वे एक सांस्कृतिक नायक थे, जिन्होंने अवध की धरोहर को अमर किया, और साथ ही एक ऐसे शासक भी, जो अपने समय की चुनौतियों से पूरी तरह पार नहीं पा सके। इसीलिए, उन्हें न तो केवल एक अयोग्य शासक कहा जा सकता, न ही केवल एक प्यारा नवाब। वे इन दोनों के बीच के एक जटिल व्यक्तित्व थे, जिनका योगदान आज भी प्रासंगिक है।