परमाणु हथियार, जिन्हें हम अक्सर “एटम बम” के नाम से जानते हैं, दुनिया की सबसे विनाशकारी ताकतों में से एक हैं। ये न केवल युद्ध की रणनीतियों को बदल देते हैं, बल्कि वैश्विक राजनीति और देशों के बीच संबंधों को भी प्रभावित करते हैं। आज हम बात करेंगे एक ऐसे सवाल की, जो इतिहास, राजनीति और रणनीति के जटिल ताने-बाने को समझने में हमारी मदद करता है: पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने से इजरायल क्यों नहीं रोक सका? यह कहानी न केवल तकनीकी और सैन्य रणनीतियों की है, बल्कि यह उन देशों की महत्वाकांक्षाओं, डर, और वैश्विक शक्ति संतुलन की भी कहानी है।
परमाणु हथियार और इजरायल की चिंता
इजरायल, एक छोटा लेकिन सैन्य रूप से शक्तिशाली देश, मध्य पूर्व में अपनी सुरक्षा को लेकर हमेशा सतर्क रहा है। इजरायल का मानना है कि अगर उसके पड़ोसी देशों के पास परमाणु हथियार होंगे, तो यह उसके अस्तित्व के लिए खतरा बन सकता है। यही कारण है कि इजरायल ने हमेशा मध्य पूर्व में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने की कोशिश की है। उसने इराक (1981 में ओसिरक रिएक्टर पर हमला) और सीरिया (2007 में अल-किबर रिएक्टर पर हमला) के परमाणु कार्यक्रमों को नष्ट करके यह साबित भी किया है। लेकिन जब बात पाकिस्तान की आई, तो इजरायल के प्रयास नाकाम रहे। आइए, इसकी वजहों को समझते हैं।
पाकिस्तान का परमाणु सपना
पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम 1970 के दशक में शुरू हुआ। 1971 में भारत के साथ युद्ध में हार और पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) के अलग होने के बाद, पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने ठान लिया कि देश को हर हाल में परमाणु हथियार हासिल करना है। भुट्टो ने मशहूर बयान दिया था, “अगर भारत के पास परमाणु बम है, तो हम भी भूखे रहकर परमाणु बम बनाएंगे।”
इस महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पाकिस्तान ने अब्दुल कादिर खान को चुना, जो एक मेटलर्जिस्ट थे और नीदरलैंड्स की कंपनी यूरेनको में काम करते थे। खान ने वहां से यूरेनियम संवर्धन की तकनीक चुराई और पाकिस्तान के कहुटा संयंत्र में परमाणु बम बनाने की नींव रखी। 1998 में, पाकिस्तान ने छह परमाणु परीक्षण किए और दुनिया को दिखा दिया कि वह परमाणु शक्ति संपन्न देश बन चुका है।
इजरायल का डर और उसकी कोशिशें
इजरायल को पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम शुरू से ही चिंता का विषय रहा। उसे डर था कि पाकिस्तान का “इस्लामी बम” न केवल भारत के लिए, बल्कि मध्य पूर्व के लिए भी खतरा बन सकता है। इजरायल को आशंका थी कि पाकिस्तान अपनी तकनीक को अन्य देशों, जैसे लीबिया या ईरान, के साथ साझा कर सकता है। इस डर से इजरायल ने कई कदम उठाए:
- अब्दुल कादिर खान पर हमले की कोशिश: इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने अब्दुल कादिर खान को निशाना बनाने की योजना बनाई। खान को “पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम का जनक” माना जाता था। इजरायल ने सोचा कि अगर खान को हटा दिया जाए, तो पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम कमजोर पड़ जाएगा। लेकिन यह कोशिश कामयाब नहीं हुई।
- भारत के साथ संयुक्त हमले की योजना: 1980 के दशक में, इजरायल ने भारत को प्रस्ताव दिया कि दोनों देश मिलकर पाकिस्तान के कहुटा परमाणु संयंत्र पर हवाई हमला करें। यह योजना इराक के ओसिरक रिएक्टर पर 1981 में किए गए इजरायली हमले की तर्ज पर थी। लेकिन भारत ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
भारत ने इजरायल का साथ क्यों नहीं दिया?
भारत ने इजरायल के प्रस्ताव को स्वीकार न करने के कई कारण थे। 1980 के दशक में भारत की नीतियां और प्राथमिकताएं ऐसी थीं कि वह इस तरह के जोखिम भरे कदम से बचना चाहता था। आइए, इन कारणों को समझते हैं:
- कूटनीतिक नीति: भारत उस समय गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का हिस्सा था और अपनी नीतियों को शांतिपूर्ण और कूटनीतिक बनाए रखना चाहता था। पाकिस्तान पर हमला करने का मतलब था एक बड़ा क्षेत्रीय युद्ध छेड़ना, जो भारत के हित में नहीं था।
- आंतरिक और बाहरी दबाव: भारत को डर था कि अगर वह इजरायल के साथ मिलकर हमला करता है, तो इससे न केवल पाकिस्तान के साथ युद्ध छिड़ सकता है, बल्कि अन्य मुस्लिम देशों के साथ उसके संबंध भी खराब हो सकते हैं। उस समय भारत अरब देशों के साथ अपने रिश्तों को मजबूत करने की कोशिश कर रहा था।
- खुफिया जानकारी की कमी: भारत को कहुटा संयंत्र के बारे में पूरी और सटीक जानकारी नहीं थी। बिना पुख्ता जानकारी के हमला करना जोखिम भरा हो सकता था। अगर हमला नाकाम होता, तो भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारी आलोचना का सामना करना पड़ता।
- कांग्रेस सरकार की सतर्कता: उस समय भारत में कांग्रेस सरकार थी, और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी ने कूटनीति को प्राथमिकता दी। 1988 में, राजीव गांधी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें दोनों देशों ने एक-दूसरे के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमला न करने का वादा किया।
इजरायल की अपनी सीमाएं
इजरायल के लिए भी पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को रोकना आसान नहीं था। इसके कई कारण थे:
- भौगोलिक दूरी: इजरायल और पाकिस्तान के बीच हजारों किलोमीटर की दूरी है। इजरायल के लिए पाकिस्तान के कहुटा संयंत्र तक पहुंचना और हमला करना तकनीकी रूप से बहुत मुश्किल था। इराक और सीरिया के मामले में इजरायल के पास भौगोलिक निकटता थी, लेकिन पाकिस्तान के मामले में ऐसा नहीं था।
- अंतरराष्ट्रीय समर्थन की कमी: इजरायल को इस हमले के लिए भारत या किसी अन्य देश का समर्थन चाहिए था, लेकिन भारत के इनकार के बाद इजरायल अकेले इस मिशन को अंजाम नहीं दे सका। साथ ही, अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश भी नहीं चाहते थे कि मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया में अस्थिरता बढ़े।
- पाकिस्तान को बाहरी समर्थन: पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को चीन और कुछ हद तक अमेरिका का समर्थन प्राप्त था। चीन ने पाकिस्तान को समृद्ध यूरेनियम और तकनीकी सहायता दी, जबकि 1980 के दशक में अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ अफगान युद्ध में पाकिस्तान की मदद के लिए उसके परमाणु कार्यक्रम पर आंखें मूंद लीं। 1990 में अमेरिका ने पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगाए, लेकिन तब तक पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम काफी आगे बढ़ चुका था।
वैश्विक राजनीति का खेल
पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने में इजरायल की असफलता का एक बड़ा कारण वैश्विक राजनीति भी थी। 1970 और 1980 के दशक में, शीत युद्ध अपने चरम पर था। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चल रही प्रतिद्वंद्विता में पाकिस्तान एक महत्वपूर्ण सहयोगी था। अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ जिहाद में पाकिस्तान की भूमिका को देखते हुए, अमेरिका ने उसके परमाणु कार्यक्रम की अनदेखी की।
इसके अलावा, चीन का समर्थन पाकिस्तान के लिए गेम-चेंजर साबित हुआ। चीन ने न केवल तकनीकी सहायता दी, बल्कि वैज्ञानिकों और सामग्री भी उपलब्ध कराई। यह समर्थन इतना मजबूत था कि इजरायल जैसे देश के लिए अकेले इसे रोकना असंभव था।
क्या इजरायल पूरी तरह नाकाम रहा?
हालांकि इजरायल पाकिस्तान को परमाणु हथियार बनाने से नहीं रोक सका, लेकिन उसने अपने प्रयासों से पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को कुछ हद तक धीमा जरूर किया। खान को निशाना बनाने की कोशिशों और भारत के साथ संयुक्त हमले की योजना ने पाकिस्तान पर दबाव बनाया। साथ ही, इजरायल की चेतावनियों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान इस मुद्दे की ओर खींचा।
आज की स्थिति
आज पाकिस्तान के पास करीब 170 परमाणु हथियार हैं, जो भारत के 164 हथियारों से थोड़े ज्यादा हैं। लेकिन भारत और पाकिस्तान दोनों ने परमाणु हथियारों को केवल रक्षा के लिए रखने की नीति अपनाई है। भारत ने “पहले प्रयोग न करने” की नीति घोषित की है, जबकि पाकिस्तान ने ऐसी कोई स्पष्ट नीति नहीं बनाई।
हाल के वर्षों में, खासकर 2025 में इजरायल और ईरान के बीच बढ़ते तनाव ने फिर से इस सवाल को जन्म दिया है कि क्या इजरायल भविष्य में पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को निशाना बनाएगा। कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि इजरायल ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले किए हैं, और वह पाकिस्तान को भी चेतावनी दे चुका है। लेकिन यह अभी केवल कयास हैं, और पाकिस्तान ने स्पष्ट किया है कि वह इजरायल-ईरान युद्ध में सीधे शामिल नहीं होगा।
निष्कर्ष
इजरायल के लिए पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम रोकना एक जटिल चुनौती थी। भौगोलिक दूरी, अंतरराष्ट्रीय समर्थन की कमी, और पाकिस्तान को मिल रहे चीन और अमेरिका के समर्थन ने इजरायल की कोशिशों को नाकाम कर दिया। भारत का साथ न देना भी एक बड़ा कारण रहा। यह कहानी हमें दिखाती है कि वैश्विक राजनीति कितनी जटिल हो सकती है, और कैसे कई देशों के हित एक-दूसरे से टकराते हैं।
युवा पाठकों के लिए यह समझना जरूरी है कि परमाणु हथियार न केवल शक्ति का प्रतीक हैं, बल्कि एक बड़ी जिम्मेदारी भी हैं। इन हथियारों का इस्तेमाल न हो, इसके लिए देशों को कूटनीति और संवाद का रास्ता अपनाना चाहिए। इजरायल और पाकिस्तान की यह कहानी हमें सिखाती है कि युद्ध और टकराव से ज्यादा महत्वपूर्ण है शांति और सहयोग की राह चुनना।