भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनगिनत नायकों ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया। इन नामों में कुछ ऐसे भी हैं जिनके योगदान को अक्सर वह पहचान नहीं मिल पाती जिसके वे हकदार हैं। ऐसी ही एक महान शख्सियत थीं अबादी बानो बेगम, जिन्हें प्यार से बी अम्माँ के नाम से जाना जाता है। उनका जीवन, संघर्ष और निडरता न केवल भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, बल्कि आज भी हर मुस्लिम महिला और हर भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
प्रारंभिक जीवन और असाधारण साहस का बीज
सन् 1850 में उत्तर प्रदेश में जन्मी अबादी बानो बेगम ने बहुत कम उम्र में ही देश की नब्ज़ को पहचान लिया था। जब वह मात्र सात वर्ष की थीं, तब उन्होंने 1857 की आज़ादी की पहली क्रांति को, जिसमें उनका परिवार भी शामिल था, बहुत नज़दीक से देखा। इस अनुभव ने उनके भीतर स्वतंत्रता की एक ऐसी चिंगारी प्रज्ज्वलित कर दी जो उनके जीवनभर धधकती रही।
उनके पति, अब्दुल अली खान, रामपुर रियासत में एक वरिष्ठ अधिकारी थे, लेकिन उनके असामयिक निधन ने अबादी बेगम पर पाँच बच्चों की बड़ी ज़िम्मेदारी डाल दी। सीमित संसाधनों के बावजूद, उन्होंने अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प के साथ इन चुनौतियों का सामना किया। उन्होंने न केवल अपने बच्चों को बरेली के अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ाया, बल्कि उन्हें अलीगढ़ से लेकर ऑक्सफ़ोर्ड तक उच्च शिक्षा के लिए भेजा। इसके लिए उन्हें अपने गहने तक बेचने पड़े, लेकिन उन्होंने सुनिश्चित किया कि उनके बच्चे बेहतरीन शिक्षा प्राप्त करें और देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझें। इसी शिक्षा का परिणाम था कि उनके पुत्र, मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली, आगे चलकर स्वयं प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी बने।
स्वतंत्रता संग्राम में एक मुखर आवाज़
बचपन में देखी गई क्रांति की चिंगारी बड़े होने तक अबादी बेगम के भीतर प्रज्ज्वलित रही। बुर्का पहनकर भी उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और खिलाफत आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनीं। 1917 में जब श्रीमती एनी बेसेंट को जेल हुई, तब अबादी बेगम स्वाधीनता संग्राम से ऐसी जुड़ीं कि फिर मुड़कर पीछे नहीं देखा। वे आख़िर दम तक डटी रहीं और महात्मा गांधी जी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन से जुड़ गईं। उनकी सक्रियता और प्रभाव से प्रेरित होकर बड़ी संख्या में महिलाएँ इस आंदोलन से जुड़ीं, जो उस समय एक अभूतपूर्व बात थी।
बी अम्माँ महिला सभाओं को संबोधित करती थीं। स्वतंत्रता आंदोलनों और मुस्लिम लीग के सत्रों में उनके दिए मार्मिक और ज़बरदस्त भाषणों ने जनमानस, विशेषकर मुसलमानों पर, गहरा और प्रभावी असर किया। उन्होंने अपने धार्मिक मूल्यों के साथ-साथ राष्ट्रीय मूल्यों का भी पालन किया। परदे में रहकर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी सभाओं को संबोधित किया और पर्दानशीं औरतों को भी आज़ादी के आंदोलन से जोड़ दिया। इस प्रकार, उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम एकता को एक डोर में पिरोया, क्योंकि वे हिन्दू-मुस्लिम को देश की दो आँखें कहा करती थीं। उन्होंने पूरे भारत में यात्राएँ कीं और स्वतंत्रता आंदोलनों तथा बाल गंगाधर तिलक द्वारा स्थापित तिलक स्वराज कोष के लिए धन जुटाया।
निडरता और विरासत
अबादी बानो बेगम की निडरता का एक और उदाहरण तब सामने आया जब उनके बेटों, मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली के बारे में यह झूठ फैलाया गया कि उन्होंने सज़ा से बचने के लिए अंग्रेज़ों से माफ़ी मांग ली है। इस पर बी अम्माँ ने दृढ़ता से कहा, “पहले तो मेरे बेटे सरकार से माफ़ी मांगेंगे नहीं, पर अगर उन्होंने यह किया है तो मेरे बूढ़े हाथों में अभी इतना दम है कि मैं उनका गला दबा सकती हूँ।” यह कथन उनकी हिम्मत, देश प्रेम और सिद्धांतों के प्रति उनकी अटूट निष्ठा को दर्शाता है।
अबादी बेगम का पूरा जीवन देश को समर्पित और स्वतंत्रता के आंदोलन में बीता। उन्होंने यही मशाल अपने बेटों और देश के लाखों लोगों में जलाई। 13 नवंबर 1924 को यह महान आत्मा दुनिया से विदा हो गईं, लेकिन उन्होंने हमारे देश और समाज के लिए, एक स्त्री और एक मुस्लिम स्त्री होने के नाते, एक अमिट मिसाल कायम की।
हालाँकि अबादी बानो खुद बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन वे बहुत ही प्रगतिशील विचारों वाली दूरदर्शी महिला थीं। वे हमेशा शैक्षणिक कार्यों के लिए अग्रसर रहती थीं और आधुनिक शिक्षा की प्रबल पक्षधर थीं।
आज हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम उनके जीवन को अपने समाज और देश के विकास के लिए एक मिसाल बनाएँ। उनकी हिम्मत और बलिदान को याद रखें ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ उनके पदचिह्नों पर चल सकें और एक समृद्ध, एकजुट भारत का निर्माण कर सकें। अबादी बानो बेगम की कहानी हर उस मुस्लिम महिला को प्रेरित करती है जो समाज में अपनी आवाज़ उठाना चाहती है और देश के लिए कुछ करना चाहती है।
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