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> इतिहास > स्वतंत्रता सेनानी > मौलाना शौकत अली: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक और एकता के प्रतीक

मौलाना शौकत अली: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक और एकता के प्रतीक

मौलाना शौकत अली, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक और खिलाफत आंदोलन के नेता, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया। उनके जीवन, पत्रकारिता, और कार्यों के बारे में विस्तार से जानें।
एо अहमद
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एо अहमद
लेखकएо अहमद
Founder and Editor
मैं आफताब अहमद इस साइट पर एक लेखक हूं, मुझे विभिन्न शैलियों और विषयों पर लिखना पसंद है। मुझे ऐसा निबंध और ब्लॉग लिखना अच्छा लगता...
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Published: 04/07/2025
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18 मिनट में पढ़ें

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई नायकों ने अपनी जिंदगी देश की आजादी और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए समर्पित की, लेकिन कुछ के योगदान को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। मौलाना शौकत अली, जिन्हें ‘अली बंधु’ के नाम से जाना जाता है, ऐसी ही एक शख्सियत हैं। यह लेख उनकी उस ऐतिहासिक जिंदगी के हर पहलू को उजागर करता है, जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई, हिंदू-मुस्लिम एकता, और स्वतंत्रता के लिए उनके बलिदान को दर्शाती है। यह कहानी न केवल उनकी बहादुरी को सामने लाती है, बल्कि यह भी सवाल उठाती है कि क्यों उनके योगदान को इतिहास में उतना नहीं उभारा गया, जितना जिन्ना, पटेल, नेहरू, या सावरकर जैसे नेताओं को।

हाईलाइट्स
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमिस्वतंत्रता संग्राम में योगदान: कॉमरेड और हमदर्दखिलाफत आंदोलन और गांधी के साथ सहयोगहिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक: कराची सम्मेलनमहिलाओं और समावेशिता पर विचारवैश्विक योगदान और अंतिम वर्षमहान नेताओं की श्रद्धांजलिआज का संदेश और साजिश का सवालनिष्कर्ष

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

मौलाना शौकत अली का जन्म 10 मार्च 1873 को रामपुर में हुआ था। वे रुहेला पठान अब्दुल अली खान और आबादी बानो की पांच संतानों में से एक थे। उनके परिवार का स्वतंत्रता संग्राम से गहरा नाता था। 1857 की क्रांति में उनके बुजुर्गों ने अपना लहू बहाया था। उनके पिता अब्दुल अली खान रामपुर में बस गए थे, जहां उनकी शादी आबादी बानो से हुई, जिन्हें इतिहास ‘बी अम्मा‘ के नाम से जानता है। आबादी बानो स्वयं एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर विशेष ध्यान दिया। शौकत अली ने अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बना) से शिक्षा प्राप्त की। वे क्रिकेट के शौकीन थे और विश्वविद्यालय की क्रिकेट टीम के कप्तान भी रहे। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे संयुक्त प्रांत की सिविल सेवा में शामिल हुए, लेकिन उनका असली योगदान स्वतंत्रता संग्राम में रहा।

शौकत अली का प्रारंभिक जीवन उनके परिवार की समृद्ध परंपराओं और शिक्षा के प्रति समर्पण से प्रभावित था। उनके पिता रामपुर रियासत में एक सम्मानित पद पर थे। उनकी मां, आबादी बानो, ने अपने बच्चों को देशभक्ति और शिक्षा का महत्व सिखाया, जो उनके जीवन में स्पष्ट रूप से झलकता है।

शौकत अली की शिक्षा अलीगढ़ में हुई, जहां उन्होंने न केवल अकादमिक ज्ञान प्राप्त किया, बल्कि खेल के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा दिखाई। वे एक उत्साही क्रिकेट खिलाड़ी थे और अपने कॉलेज की टीम के कप्तान रहे। इस दौरान उन्होंने नेतृत्व और संगठनात्मक कौशल विकसित किया, जो बाद में स्वतंत्रता संग्राम में उनके काम आया। पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने 17 वर्षों तक ब्रिटिश भारत में अवध और आगरा के संयुक्त प्रांतों की सिविल सेवा में काम किया। इस नौकरी ने उन्हें ब्रिटिश प्रशासन की कार्यप्रणाली को करीब से समझने का मौका दिया, जिसे उन्होंने बाद में अपने आंदोलन में उपयोग किया।


स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: कॉमरेड और हमदर्द

मौलाना शौकत अली ने अपने छोटे भाई मौलाना मोहम्मद अली जौहर के साथ मिलकर ‘कॉमरेड’ (अंग्रेजी) और ‘हमदर्द’ (उर्दू) नामक साप्ताहिक पत्रिकाएं शुरू कीं। इन पत्रिकाओं ने उस समय मुस्लिम समुदाय के बीच भारत की राजनीतिक चेतना को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनके लेखों ने लोगों को एकजुट कर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। 1915 में शौकत अली ने एक लेख में तुर्की का समर्थन करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ लिखा, जिसके चलते उन्हें देशद्रोही करार देकर जेल भेज दिया गया। यह घटना दर्शाती है कि वे कितने निडर थे।

  • कॉमरेड: यह अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र 1911 में कलकत्ता से शुरू हुआ और बाद में दिल्ली स्थानांतरित हो गया। मौलाना मुहम्मद अली जौहर की ओजस्वी लेखन शैली ने इस पत्र को प्रभावशाली बनाया, जबकि शौकत अली ने इसके प्रकाशन और प्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह पत्र राष्ट्रीय भावना को जागृत करने और मुस्लिम समुदाय के अधिकारों की वकालत करने का एक सशक्त माध्यम बना। इसके लेखों ने ब्रिटिश नीतियों की कड़ी आलोचना की और भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया।
  • हमदर्द: 1913 में शुरू हुआ यह उर्दू साप्ताहिक पत्र अपनी शुद्ध और प्रभावशाली भाषा के लिए प्रसिद्ध था। यह मुस्लिम समुदाय के बीच स्वराज्य और स्वतंत्रता की भावना को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण था। मौलाना अबुल कलाम आजाद के ‘अल-हिलाल’ के बाद ‘हमदर्द’ को उर्दू पत्रकारिता में सबसे प्रभावशाली माना जाता था। शौकत अली ने इस पत्र के जरिए जनता को एकजुट करने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ जागरूकता फैलाने का काम किया।

1915 में, शौकत अली ने ‘कॉमरेड’ में तुर्की के समर्थन में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने तुर्कों के ब्रिटिश विरोध को उचित ठहराया। यह लेख ब्रिटिश सरकार को नागवार गुजरा, और उन्हें विद्रोहात्मक सामग्री प्रकाशित करने के आरोप में जेल में डाल दिया गया। यह घटना उनके साहस और देशभक्ति का प्रतीक है। इन पत्रों के माध्यम से शौकत अली ने न केवल ब्रिटिश नीतियों की आलोचना की, बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश भी फैलाया, जो उनके जीवन का एक प्रमुख लक्ष्य रहा।


खिलाफत आंदोलन और गांधी के साथ सहयोग

खिलाफत आंदोलन, जो तुर्की में ब्रिटिश हस्तक्षेप के खिलाफ शुरू हुआ, में मौलाना शौकत अली को अध्यक्ष चुना गया। इस आंदोलन ने मुस्लिम समुदाय को एकजुट किया, और महात्मा गांधी ने इसे स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने का अवसर देखा। गांधी के साथ मिलकर शौकत अली और उनके भाई ने असहयोग आंदोलन को मजबूती दी। इस दौरान 1921 में उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया और 1923 तक जेल में रखा गया। जेल से रिहा होने के बाद उनका हौसला और बुलंद हुआ। उन्होंने क्रांतिकारी सचिंद्र नाथ सान्याल को हथियार सप्लाई करने में भी मदद की, जो उनकी क्रांतिकारी सोच को दर्शाता है।

  • खिलाफत आंदोलन की शुरुआत: प्रथम विश्व युद्ध के बाद, तुर्की के खलीफा के पद को खत्म करने की ब्रिटिश नीति ने भारतीय मुस्लिम समुदाय में आक्रोश पैदा किया। शौकत अली ने 1919 में खिलाफत सम्मेलन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसे एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दिया। जेल में रहते हुए भी उन्हें इसका अंतिम अध्यक्ष चुना गया, जो उनके प्रभाव और लोकप्रियता को दर्शाता है। इस आंदोलन ने भारतीय मुसलमानों को संगठित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुटता का संदेश दिया।
  • गांधी के साथ सहयोग: शौकत अली और उनके भाई ने महात्मा गांधी के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन (1919-1922) को समर्थन दिया। गांधी ने खिलाफत आंदोलन को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जोड़ा, जिससे हिंदू-मुस्लिम एकता को बल मिला। शौकत अली ने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार, सरकारी नौकरियों से त्यागपत्र, और स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाई। यह सहयोग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक ऐतिहासिक क्षण था, जब हिंदू और मुस्लिम समुदाय एक साथ ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़े।
  • जेल यात्राएं: अपने भाई के साथ, शौकत अली को 1919 और फिर 1921-1923 के दौरान ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार किया। 1922 में वे राजकोट जेल में थे, जहां उनकी देशभक्ति और साहस के लिए उन्हें और उनके भाई को “मौलाना” की उपाधि दी गई। यह उपाधि उनके समर्थकों द्वारा उनके सम्मान में दी गई थी। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों में भी हिस्सा लिया, जिसमें सचिंद्र नाथ सान्याल जैसे क्रांतिकारियों को हथियार सप्लाई करने में सहायता शामिल थी।

हालांकि बाद में गांधी और अली बंधुओं के बीच कुछ सियासी मतभेद हुए, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के लिए उनकी एकजुटता अटल रही। शौकत अली ने कांग्रेस का समर्थन किया, लेकिन 1928 में नेहरू रिपोर्ट का विरोध किया, जिसमें भारत के संविधान के लिए नए प्रभुत्व और संघीय ढांचे का प्रस्ताव था। इस रिपोर्ट में मुस्लिम समुदाय के भविष्य को लेकर कुछ चिंताएं थीं, जिसके कारण उन्होंने और मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया।


हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक: कराची सम्मेलन

मौलाना शौकत अली की जिंदगी का सबसे प्रेरणादायक पहलू उनकी हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रति अटूट प्रतिबद्धता थी। 1921 में कराची में आयोजित अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन इसका जीवंत उदाहरण है। इस मंच पर उनके साथ जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीय कृष्ण तीर्थ, मौलाना हुसैन अहमद, डॉक्टर किचलू, पीर गुलाम मुजादरा अहमद और अन्य कई नेता मौजूद थे। सेंट्रल खिलाफत कमेटी (सीकेसी) के बैनर तले एक फतवा जारी किया गया कि ब्रिटिश सेना में सेवा करना हराम है। इस मंच पर हिंदू और मुस्लिम नेताओं का एक साथ होना देश की अखंडता का प्रतीक था।

कराची में कोर्ट में पेशी के दौरान शौकत अली का साहस और बेबाकी देखने लायक थी। जब मजिस्ट्रेट ने उन्हें भाषण देने से रोका, तो उन्होंने निर्भीक होकर कहा, “आप मुझे फांसी पर चढ़ा सकते हैं। मैंने सैकड़ों भाषण दिए हैं और आपके सामने भी देने से नहीं डरता। मैं खुदा की मखलूक हूं और भारत का आजाद बाशिंदा हूं। मुझे न राजा चाहिए, न यह दरबार, न यह सेना। अगर मुझ पर मौत का मुकदमा भी चलाया जाए, तो मुझे खुशी होगी।”

उन्होंने अपने भाषण में हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए कहा, “अंग्रेजों को यह नहीं सोचना चाहिए कि भारत विभाजित लोगों का घर है। देश भर में हिंदू लोग खिलाफत समितियों का हिस्सा हैं। जहां मुस्लिम कम हैं, वहां हिंदुओं ने इन समितियों की स्थापना की।” उन्होंने शंकराचार्य का जिक्र करते हुए कहा कि वे खिलाफत के लिए हिंदू धार्मिक समर्थन देने आए थे। शौकत अली ने यह भी कहा कि हर भारतीय, चाहे हिंदू हो या मुस्लिम, पुरुष हो या महिला, दिल से जानता है कि दोनों एक हैं और अंग्रेजों से तब तक लड़ेंगे जब तक जलियावाला बाग के शहीदों को न्याय और स्वराज प्राप्त नहीं हो जाता।


महिलाओं और समावेशिता पर विचार

शौकत अली ने कोर्ट में महिलाओं की भूमिका को भी रेखांकित किया। उन्होंने कहा, “सिर्फ मर्द ही नहीं, भारत की औरतें भी विदेशी शासन के खिलाफ राष्ट्रीय संघर्ष में कूद पड़ी हैं। इन महिलाओं ने ये जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं। मेरी मां, मेरे भाइयों की बीवियां, मेरी बेटियां, हमारी महिलाएं लोगों को एकजुट करने जाएंगी।” यह बयान उनकी प्रगतिशील सोच और महिलाओं के प्रति सम्मान को दर्शाता है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन्हें और उनके साथियों को कैद भी किया जाए, तो उनकी महिलाएं स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाएंगी।

शौकत अली का यह दृष्टिकोण उस समय के समाज में क्रांतिकारी था, जब महिलाओं की सार्वजनिक भूमिका सीमित थी। उनकी मां, आबादी बानो, और परिवार की अन्य महिलाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी की, जो उनके विचारों को और मजबूती देता है। यह दिखाता है कि वे न केवल पुरुषों, बल्कि पूरे समाज को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल करना चाहते थे।


वैश्विक योगदान और अंतिम वर्ष

मौलाना शौकत अली ने न केवल भारत में, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी मुस्लिम समुदाय के लिए काम किया। उन्होंने यरूशलेम में विश्व मुस्लिम सम्मेलन का आयोजन किया, जिससे उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान बढ़ी। हालांकि उनके जीवन के कई किस्से इंटरनेट या किताबों में आसानी से उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन उनकी विरासत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

26 नवंबर 1938 को दिल्ली के करोल बाग में उनके भाई के घर पर उनका निधन हो गया। 27 नवंबर 1938 को उनकी अंतिम यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए। उनकी नमाज-ए-जनाजा जामा मस्जिद में पढ़ी गई, और उन्हें मस्जिद के अहाते में, मीना बाजार की ओर जाने वाले रास्ते पर दफन किया गया। उनकी मृत्यु स्वाभाविक कारणों से हुई, लेकिन उनका जीवन स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पण का प्रतीक बना रहा।

29 जनवरी 1932 को डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर और मौलाना शौकत अली लंदन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के बाद (एक दुर्लभ फोटो)

महान नेताओं की श्रद्धांजलि

मौलाना शौकत अली के निधन पर केंद्रीय असेंबली में श्रद्धांजलि दी गई। सर निपेंद्र नाथ सरकार ने उनकी मौजूदगी और योगदान को सराहा। बीजे देसाई ने कहा, “मौलाना का जाना न केवल इस सदन, बल्कि पूरे भारत के लिए बड़ा नुकसान है।” सरोजिनी नायडू ने उन्हें साहसी और त्यागी शख्सियत बताया और कहा, “उनके रूप में भारत ने एक गतिशील और विशिष्ट व्यक्ति को खो दिया।” महात्मा गांधी ने जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रिंसिपल डॉ. जाकिर हुसैन को टेलीग्राम में लिखा, “हालांकि हमारे बीच सियासी मतभेद थे, लेकिन हम हमेशा अच्छे दोस्त रहे। मौलाना हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए हमेशा काम करते रहे।” स्वतंत्रता सेनानी सुंदर शास्त्री सत मूर्ति ने कहा, “वह हमेशा आजादी के मजबूत सिपाही रहे। कुछ लोग उन्हें सांप्रदायिक कहते हैं, लेकिन वे इससे नाखुश थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयासरत रहे।”

इन श्रद्धांजलियों से पता चलता है कि शौकत अली का प्रभाव कितना व्यापक था। उनके समकालीन नेताओं ने उनकी देशभक्ति, साहस, और एकता के प्रति समर्पण को सराहा, जो उनकी विरासत को और मजबूत करता है।


आज का संदेश और साजिश का सवाल

मौलाना शौकत अली की कहानी हमें सिखाती है कि साहस, एकता, और स्वतंत्रता के लिए त्याग से ही देश की अखंडता बनी रह सकती है। उनके भाषण और कार्यों से पता चलता है कि वे धर्म, राष्ट्रवाद, और न्याय के प्रति कितने प्रतिबद्ध थे। लेकिन यह सवाल उठता है कि क्यों उनके योगदान को इतिहास में उतना उभारा नहीं गया, जितना जिन्ना की टू-नेशन थ्योरी, पटेल की एकीकरण कथाओं, नेहरू के किस्सों, या सावरकर की वीरता को। क्या यह एक साजिश है कि मौलाना शौकत अली जैसे नेताओं को भुला दिया गया, ताकि नफरत के सहारे सत्ता कायम रहे? आज जब समाज में विभाजनकारी ताकतें सक्रिय हैं और मुसलमानों से देशभक्ति के सबूत मांगे जाते हैं, उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि हिंदू-मुस्लिम एकता भारत की ताकत है।

शौकत अली का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि इतिहास के पन्नों में छिपे नायकों की कहानियां हमें अपने देश के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराती हैं। उनकी विरासत आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह हमें एकता और समर्पण के महत्व को समझाती है। युवा पीढ़ी के लिए उनकी कहानी एक प्रेरणा है कि साहस और समावेशिता के साथ बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं।


निष्कर्ष

मौलाना शौकत अली का जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें सिखाता है कि साहस, समर्पण, और एकता के साथ किसी भी बड़े लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। उनकी पत्रकारिता, खिलाफत आंदोलन में भूमिका, और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयास आज भी हमें राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के मूल्यों की याद दिलाते हैं। उनका जीवन हमें यह भी सिखाता है कि मतभेदों के बावजूद, राष्ट्रीय हितों के लिए एकजुट होना कितना महत्वपूर्ण है।

उनका प्रसिद्ध कथन, “मैं खुदा की मखलूक हूं और भारत का आजाद बाशिंदा हूं। मुझे न राजा चाहिए, न यह दरबार, न यह सेना। अगर मुझ पर मौत का मुकदमा भी चलाया जाए, तो मुझे खुशी होगी।” उनके साहस, देशभक्ति, और एकता के प्रति समर्पण का प्रतीक है। हम सबकी जिम्मेदारी है कि मौलाना शौकत अली जैसे नायकों की कहानियों को लोगों तक पहुंचाएं, ताकि देश की अखंडता और भाईचारा कायम रहे, चाहे इसके लिए कितने ही त्याग करने पड़ें।

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