मौलाना हसरत मोहानी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के उन अनसुने नायकों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी शायरी, राजनीति और क्रांतिकारी विचारों से ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी। इस लेख में हम मौलाना हसरत मोहानी की जीवनी, उनकी पूर्ण स्वराज की मांग और भगत सिंह से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों पर चर्चा करेंगे।
- एक अज़ीम शख्सियत, एक इंकलाबी दास्तान
- इंकलाब ज़िंदाबाद: एक नारा, एक परचम ✊🇮🇳
- पूर्ण स्वराज: एक दूरदर्शी मांग, जो आठ साल बाद सच हुई 🌅
- इत्तेहाद की जंग और भारत का विभाजन 💔
- अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs) ❓
- प्रश्न: इंकलाब जिंदाबाद का नारा किसने दिया था?
- प्रश्न: भगत सिंह ने इस नारे को कैसे लोकप्रिय बनाया?
- प्रश्न: मौलाना हसरत मोहानी ने ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग कब की थी?
- प्रश्न: 1921 में कांग्रेस का इस प्रस्ताव पर क्या रुख था?
- प्रश्न: क्या हसरत मोहानी कृष्ण भक्त थे?
- प्रश्न: ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ पत्रिका का क्या महत्व था?
- प्रश्न: हसरत मोहानी ने कौन सा प्रसिद्ध शेर जेल में लिखा था?
- प्रश्न: क्या उन्होंने भारत के विभाजन का समर्थन किया था?
- प्रश्न: क्या वे संविधान सभा के सदस्य थे?
- प्रश्न: हसरत मोहानी का निधन कब और कहाँ हुआ?
- एक विरासत जो हमेशा ज़िंदा रहेगी 🌟
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास सिर्फ़ बलिदान और संघर्ष की दास्तान नहीं है, बल्कि यह उन अज़ीम शख्सियतों की कहानी भी है, जिन्होंने अपनी कलम, अपने विचारों और अपनी बेबाक ज़ुबान से ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला दीं। ऐसी ही एक शख्सियत थे मौलाना हसरत मोहानी, जिनका नाम भले ही आज इतिहास के पन्नों में कहीं गुमनाम सा लगे, लेकिन उनका दिया ‘इंकलाब ज़िंदाबाद‘ का नारा आज भी हर हिंदुस्तानी की रगों में जोश भर देता है। वे सिर्फ़ एक शायर ही नहीं, बल्कि एक सियासी रहनुमा, पत्रकार और एक ऐसे इंकलाबी थे, जिनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी। उनका जीवन, उनकी शायरी और उनके सियासी क़दम, सभी हमें एक ऐसे नायक की दास्तान सुनाते हैं, जिन्होंने अपनी शर्तों पर आज़ादी की जंग लड़ी।
एक अज़ीम शख्सियत, एक इंकलाबी दास्तान
मौलाना हसरत मोहानी का जन्म 1 जनवरी 1875 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के कस्बा मोहान में हुआ था। उनका वास्तविक नाम सैयद फ़ज़ल-उल-हसन था। ‘हसरत’ उनका तख़ल्लुस यानी शायरी के लिए इस्तेमाल होने वाला उपनाम था, और चूंकि उनका जन्म मोहान में हुआ था, इसलिए उनके नाम के साथ ‘मोहानी’ जुड़ गया और वे हसरत मोहानी के नाम से मशहूर हो गए। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हासिल की और फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (तब एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज) में दाखिला लिया। कॉलेज के दिनों से ही वे क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़ गए और ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों के ख़िलाफ़ अपनी बेबाक राय ज़ाहिर करने लगे, जिसके लिए उन्हें 1903 में पहली बार जेल भी जाना पड़ा।
उनका व्यक्तित्व कई पहचानों का एक अनूठा संगम था। वे एक तरफ़ उर्दू अदब के माहिर थे, तो दूसरी तरफ़ एक बेहतरीन सियासतदान और पत्रकार भी। उन्होंने 1903 में अलीगढ़ से ‘उर्दू-ए-मुअल्ला‘ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्रिका अंग्रेज़ी सरकार के ज़ुल्मों और ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ खुलकर लिखती थी। उनकी कलम की ताक़त से अंग्रेज़ इतने खौफ में थे कि उन्होंने इस पत्रिका को ज़ब्त कर लिया और हसरत मोहानी को कई बार जेल भेजा। ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें तोड़ने के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने भी उनके बंदी-जीवन का पूरी तरह से पालन करने की क्षमता की सराहना की थी, यह कहते हुए कि इस श्रेष्ठता में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। उनका मानना था कि अंग्रेज़ों की चाकरी करना एक पाप है, और उन्होंने सरकारी लालच को ठुकराकर साहित्य को ही अपनी आजीविका चुना।
इंकलाब ज़िंदाबाद: एक नारा, एक परचम ✊🇮🇳
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का शायद ही कोई ऐसा नारा होगा, जो ‘इंकलाब ज़िंदाबाद‘ जितना लोकप्रिय हुआ हो। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस शक्तिशाली युद्ध घोष के जनक मौलाना हसरत मोहानी थे। उन्होंने 1921 में अपनी कलम से यह नारा गढ़ा। ‘इंकलाब ज़िंदाबाद‘ का मतलब है ‘क्रांति अमर रहे’ (Long Live The Revolution)। यह नारा उनके दूरदर्शी चिंतन को दर्शाता था, जो सिर्फ़ राजनीतिक बदलाव नहीं, बल्कि सामाजिक और वैचारिक बदलाव की भी बात करता था।
हालांकि, इस नारे को देशव्यापी पहचान मिली 1929 में, जब युवा क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के बाद इसे पूरी ताकत से बुलंद किया। इस घटना के बाद, यह नारा हर भारतीय क्रांतिकारी के लिए एक पुकार बन गया। यह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का आधिकारिक नारा बन गया और भगत सिंह की शहादत के वक़्त भी उनके लबों पर यही नारा था।
यह दिलचस्प है कि यह नारा कैसे अपनी रचना से एक जन-आंदोलन का प्रतीक बन गया। मौलाना हसरत मोहानी ने एक शायर और पत्रकार के रूप में इसकी कल्पना एक बौद्धिक विचार के तौर पर की थी, लेकिन भगत सिंह जैसे युवा क्रांतिकारियों ने इसे अपने साहसिक कार्यों और बलिदान से एक शक्तिशाली परचम में बदल दिया। इस तरह, एक कलम से जन्मा विचार पूरे देश के लिए एक प्रेरणा बन गया और आज भी हर विरोध और संघर्ष में यह नारा बुलंद किया जाता है।
पूर्ण स्वराज: एक दूरदर्शी मांग, जो आठ साल बाद सच हुई 🌅
1921 का साल भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उस समय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन अहमदाबाद में हो रहा था और पार्टी ‘स्वराज’ (ब्रिटिश शासन के भीतर स्व-शासन) की बात कर रही थी। लेकिन मौलाना हसरत मोहानी इस सोच से सहमत नहीं थे। वे कांग्रेस के ‘गरम दल’ से ताल्लुक रखते थे और बाल गंगाधर तिलक को अपना नेता मानते थे। उन्होंने मंच से एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें भारत के लिए ‘पूर्ण स्वराज‘ या ‘आज़ादी-ए-कामिल’ की मांग की गई। यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में पहला मौका था, जब किसी ने आधिकारिक तौर पर पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की थी।
हसरत मोहानी की यह बेबाक मांग उस समय कांग्रेस के अधिकांश नेताओं को स्वीकार नहीं थी। महात्मा गांधी समेत कई बड़े नेताओं ने इसे ‘समय से पहले’ और ‘जोखिम भरा’ मानकर खारिज कर दिया। लेकिन हसरत मोहानी अपने विचारों से समझौता नहीं करते थे। उन्होंने कहा था कि “गांधी की तरह बैठ के क्यों काटेंगे चरखा, लेनिन की तरह देंगे दुनिया को हिला हम”। यह उनकी उस दूरअंदेशी सोच को दर्शाता है, जो किसी भी बाहरी सत्ता के वजूद को स्वीकार नहीं कर सकती थी। उनकी यह सोच आठ साल बाद सच हुई। 1929 में कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज‘ को अपना आधिकारिक लक्ष्य घोषित किया और 26 जनवरी 1930 को पहली बार ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ मनाया गया। हसरत मोहानी का प्रस्ताव भले ही उस समय अस्वीकार कर दिया गया हो, लेकिन इसने कांग्रेस की सोच को बदलने का एक बीज बो दिया, जिसने आगे चलकर आज़ादी की दिशा तय की।
इत्तेहाद की जंग और भारत का विभाजन 💔
मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी आख़िरी सांस तक भारत के बंटवारे का पुरज़ोर विरोध किया। वे मुस्लिम लीग के सक्रिय सदस्य थे, लेकिन उन्होंने जिन्ना की नीतियों की खुलकर मुख़ालफ़त की और द्विराष्ट्र सिद्धांत का विरोध किया। उनकी राजनीतिक पहचान बहुत जटिल थी, जिसमें वे अपने संगठन से ज़्यादा अपने विचारों के प्रति वफादार थे। जब उन्हें पाकिस्तान आने का न्योता दिया गया, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि यह हिंदुस्तान की धरती ही उनका वतन है और वे यहीं मरना पसंद करेंगे।
आज़ादी के बाद वे संविधान सभा के सदस्य बने। उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ मिलकर भारत के संविधान को लिखने में एक निर्णायक भूमिका निभाई। हालाँकि, उन्होंने कभी भी संविधान पर दस्तखत नहीं किए, क्योंकि वे देश की नई राजनीतिक दिशा से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। उनका यह क़दम भी उनके सिद्धांतों के प्रति उनकी अटूट निष्ठा को दर्शाता है। वे एक ऐसे सच्चे इंकलाबी थे, जो अपने संगठन से ज़्यादा अपने वतन और अपनी अंतरात्मा के प्रति वफ़ादार थे।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs) ❓
प्रश्न: इंकलाब जिंदाबाद का नारा किसने दिया था?
उत्तर: यह नारा मौलाना हसरत मोहानी ने 1921 में अपनी कलम से गढ़ा था। इस नारे का अर्थ है ‘क्रांति अमर रहे’।
प्रश्न: भगत सिंह ने इस नारे को कैसे लोकप्रिय बनाया?
उत्तर: भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 1929 में दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के बाद इसे पहली बार सार्वजनिक रूप से बुलंद किया। उनके इस साहसिक कार्य और शहादत के बाद यह नारा पूरे देश में फैल गया और क्रांतिकारियों के लिए एक युद्ध घोष बन गया।
प्रश्न: मौलाना हसरत मोहानी ने ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग कब की थी?
उत्तर: मौलाना हसरत मोहानी 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज‘ या ‘संपूर्ण स्वतंत्रता’ की मांग करने वाले पहले व्यक्ति थे।
प्रश्न: 1921 में कांग्रेस का इस प्रस्ताव पर क्या रुख था?
उत्तर: उस समय कांग्रेस सिर्फ ‘स्वराज’ की बात कर रही थी और महात्मा गांधी सहित अधिकांश नेताओं ने हसरत मोहानी के ‘पूर्ण स्वराज‘ के प्रस्ताव को समय से पहले और जोखिम भरा मानकर खारिज कर दिया था। हालाँकि, 1929 में कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज‘ को अपना आधिकारिक लक्ष्य घोषित कर दिया।
प्रश्न: क्या हसरत मोहानी कृष्ण भक्त थे?
उत्तर: हाँ, मौलाना हसरत मोहानी एक सच्चे कृष्ण भक्त थे। वे हर जन्माष्टमी पर मथुरा जाते थे और पूरी रात कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे। उनकी कई नज़्मों में भी श्रीकृष्ण की भक्ति का ज़िक्र मिलता है।
प्रश्न: ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ पत्रिका का क्या महत्व था?
उत्तर: हसरत मोहानी ने 1903 में इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था। यह पत्रिका अंग्रेज़ी हुकूमत के ज़ुल्मों और नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती थी, जिसने उन्हें कई बार जेल भिजवाया।
प्रश्न: हसरत मोहानी ने कौन सा प्रसिद्ध शेर जेल में लिखा था?
उत्तर: जेल में चक्की पीसते हुए उन्होंने यह मशहूर शेर लिखा था: “है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी, इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत’ की तबीअत भी”।
प्रश्न: क्या उन्होंने भारत के विभाजन का समर्थन किया था?
उत्तर: नहीं, मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी आख़िरी सांस तक भारत के विभाजन का पुरज़ोर विरोध किया था। पाकिस्तान जाने का न्योता ठुकराते हुए उन्होंने कहा था कि हिंदुस्तान ही उनका वतन है।
प्रश्न: क्या वे संविधान सभा के सदस्य थे?
उत्तर: हाँ, हसरत मोहानी संविधान सभा के सदस्य थे और उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ मिलकर संविधान की रूपरेखा तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।
प्रश्न: हसरत मोहानी का निधन कब और कहाँ हुआ?
उत्तर: मौलाना हसरत मोहानी का निधन 13 मई 1951 को लखनऊ में हुआ था।
एक विरासत जो हमेशा ज़िंदा रहेगी 🌟
मौलाना हसरत मोहानी का जीवन और व्यक्तित्व हमें सिखाता है कि आज़ादी सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और विचारों की भी होती है। वे एक ऐसे नायक थे, जिनकी ज़िंदगी इंकलाब की दास्तान थी। उनका नारा, उनकी शायरी, उनकी बेबाक मांग और उनकी अनोखी शख्सियत, ये सब मिलकर हमें एक ऐसे भारत की तस्वीर दिखाते हैं, जो विचारों से समृद्ध और एकता से मज़बूत है। हमें गर्व है कि हमारे देश ने ऐसे महान इंकलाबी को जन्म दिया। उनकी विरासत को समझना और उस पर गर्व करना हमारी ज़िम्मेदारी है।
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