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> इतिहास > स्वतंत्रता सेनानी > मौलवी लियाकत अली, जिन्होंने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के एक हिस्से को आजाद करा लिया और उस पर शासन भी किया।

मौलवी लियाकत अली, जिन्होंने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के एक हिस्से को आजाद करा लिया और उस पर शासन भी किया।

मौलवी लियाकत अली, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के एक अनसुने नायक, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ धर्मी युद्ध छेड़ा। जानें उनके जीवन, देशभक्ति और बलिदान की प्रेरक कहानी।
एо अहमद
एо अहमद
एо अहमद
लेखकएо अहमद
Founder and Editor
मैं आफताब अहमद इस साइट पर एक लेखक हूं, मुझे विभिन्न शैलियों और विषयों पर लिखना पसंद है। मुझे ऐसा निबंध और ब्लॉग लिखना अच्छा लगता...
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Published: 30/06/2025
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7 मिनट में पढ़ें

1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास में एक ऐसा अध्याय है, जिसने देश की आजादी की नींव रखी। यह केवल सिपाहियों का विद्रोह नहीं था, बल्कि हर वर्ग के लोगों ने इसमें हिस्सा लिया। इस क्रांति में कुछ ऐसे नायक भी थे, जिन्होंने अपनी कलम और तलवार दोनों से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। मौलवी लियाकत अली उनमें से एक थे। उनकी कहानी न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि कैसे एक साधारण व्यक्ति असाधारण साहस और देशभक्ति के साथ इतिहास बदल सकता है।

हाईलाइट्स
बचपन और शुरुआती जीवनब्रिटिश सेना में प्रवेश और विद्रोह की शुरुआतइलाहाबाद में क्रांति की चिंगारी‘पेयम-ए-अमल’: देशभक्ति का पहला गीतब्रिटिशों का पलटवार और गिरफ्तारीअंडमान में अंतिम सांसमौलवी लियाकत अली की विरासत

बचपन और शुरुआती जीवन

मौलवी लियाकत अली का जन्म 5 अक्टूबर, 1817 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) जिले की चायल तहसील के महगाँव गाँव में एक बुनकर परिवार में हुआ था। उनके पिता सैयद मेहर अली और माता अमीनाबी ने उन्हें धार्मिक और नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी। बचपन से ही लियाकत अली ने धार्मिक ज्ञान अर्जित किया और एक मौलवी के रूप में अपनी पहचान बनाई। लेकिन उनके दिल में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गहरी नाराजगी थी। वे मानते थे कि भारत को विदेशी शासन से मुक्त करना हर देशवासी का कर्तव्य है।

ब्रिटिश सेना में प्रवेश और विद्रोह की शुरुआत

मौलवी लियाकत अली ने ब्रिटिश सेना में शामिल होकर एक साहसिक कदम उठाया। उनका उद्देश्य केवल नौकरी करना नहीं था, बल्कि भारतीय सैनिकों के बीच ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को जगाना था। उन्होंने गुप्त रूप से सैनिकों को संगठित करना शुरू किया और उनमें देशभक्ति की भावना भरी। लेकिन उनकी गतिविधियाँ ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों की नजरों से छुपी न रह सकीं। कंपनी ने उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों को भांप लिया और उन्हें सेना से निष्कासित कर दिया।

इलाहाबाद में क्रांति की चिंगारी

सेना से निकाले जाने के बाद मौलवी लियाकत अली ने हार नहीं मानी। वे अपने पैतृक गाँव महगाँव लौट आए और धार्मिक मार्गदर्शन के साथ-साथ लोगों को आजादी के लिए प्रेरित करना शुरू किया। उन्होंने इलाहाबाद में ब्रिटिश विरोधी समूहों को एकजुट किया और अंग्रेजों के खिलाफ एक धर्मी युद्ध छेड़ने का आह्वान किया। उनकी वाक्पटुता और जोश ने लोगों को एकजुट किया, और जल्द ही उनके नेतृत्व में एक बड़ा समूह तैयार हो गया।

उनके प्रयासों ने तब रंग दिखाया, जब उन्होंने अपने समर्थकों के साथ इलाहाबाद शहर पर कब्जा कर लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना और अधिकारियों को खदेड़कर उन्होंने शहर का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। मौलवी ने खुद को दिल्ली के सम्राट बहादुर शाह जफर का प्रतिनिधि घोषित किया और कौसरबाग को अपना मुख्यालय बनाकर शहर का प्रशासन संभाला।

भारतीय डाक द्वारा जारी ‘मौलवी लियाकत अली’ पर विशेष आवरण (लिफाफा)

‘पेयम-ए-अमल’: देशभक्ति का पहला गीत

मौलवी लियाकत अली केवल तलवार से ही नहीं, बल्कि अपनी कलम से भी क्रांति की मशाल जलाए रखे। उन्होंने ‘पेयम-ए-अमल’ नामक एक गीत लिखा, जो भारत का पहला देशभक्ति गीत माना जाता है। इस गीत ने हिंदू, मुस्लिम और सिख एकता का संदेश दिया और ब्रिटिश शासन के अत्याचारों को उजागर किया। गीत की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:

हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।
यह है हमारी मिल्कियत, हिंदुस्तान हमारा।

यह गीत उर्दू पत्रिका ‘पेयम-ए-आज़ादी’ में प्रकाशित हुआ, जिसे स्वतंत्रता सेनानी अज़ीमुल्लाह खान ने संपादित किया था। इस गीत ने न केवल भारतीय सैनिकों, बल्कि आम जनता के बीच भी देशभक्ति की भावना को प्रज्वलित किया।

ब्रिटिशों का पलटवार और गिरफ्तारी

मौलवी लियाकत अली की बढ़ती लोकप्रियता और उनके नेतृत्व में इलाहाबाद पर कब्जे ने ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी के जनरल नील ने भारी सैन्य बल के साथ 11 जून, 1857 को उनके मुख्यालय पर हमला किया। मौलवी ने अंत तक डटकर मुकाबला किया, लेकिन 17 जून को प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण उन्हें युद्ध क्षेत्र छोड़ना पड़ा।

ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके सिर पर 5000 रुपये का इनाम घोषित किया। इसके बावजूद, मौलवी लियाकत अली 14 साल तक अंग्रेजों से छुपते रहे। लेकिन 1871 में एक गद्दार की सूचना पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमे के दौरान उन्होंने बिना किसी डर के कहा, “मैंने केवल अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों के जुल्म से मुक्त करने के लिए हथियार उठाए।”

अंडमान में अंतिम सांस

मुकदमे के बाद मौलवी लियाकत अली को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और उन्हें अंडमान की कुख्यात सेलुलर जेल भेज दिया गया। वहाँ उन्होंने कठिन परिस्थितियों में अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए। 17 मई, 1892 को इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने अपनी अंतिम सांस ली।

मौलवी लियाकत अली की विरासत

मौलवी लियाकत अली की कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची देशभक्ति और साहस किसी भी परिस्थिति में डगमगा नहीं सकता। उन्होंने न केवल तलवार से, बल्कि अपनी लेखनी और विचारों से भी आजादी की लड़ाई लड़ी। उनका गीत ‘पेयम-ए-अमल’ आज भी देशभक्ति की भावना को जीवित रखता है।

युवाओं के लिए उनकी कहानी एक प्रेरणा है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल हों, अपने देश के लिए कुछ करने का जज्बा कभी कम नहीं होना चाहिए। मौलवी लियाकत अली जैसे अनगिनत नायकों के बलिदान के कारण ही आज हम एक स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं।

क्या आपको मौलवी लियाकत अली की यह कहानी प्रेरणादायक लगी? अपनी राय कमेंट में जरूर बताएं और इस लेख को अपने दोस्तों के साथ शेयर करें ताकि अधिक से अधिक लोग इस महान क्रांतिकारी के बारे में जान सकें।

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एо अहमद
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